tansen-samaroh:-गंगा-जमुनी-तहजीब-की-अद्भुत-परंपरा-के-साथ-तानसेन-समारोह-शुरू,-पढ़ें-संगीत-सम्राट-की-अनोखी-कहानी
न्यूज डेस्क, अमर उजाला, ग्वालियर Published by: अंकिता विश्वकर्मा Updated Mon, 19 Dec 2022 02: 05 PM IST सुरों के सरताज कहे जाने वाले तानसेन की याद में ग्वालियर में 19 दिसंबर से तानसेन समारोह का आगाज हो गया है। परम्परागत तरीके से शुरू हुए इस समारोह में सबसे पहले समधि स्थल पर हरिकथा और मिलाद का आयोजन किया गया। इसके बाद शाम को मशहूर बांसुरी वादक पं. नित्यानंद हल्दीकर को "तानसेन अलंकरण" और मुंबई की सामवेद सोसाइटी को "राजा मानसिंह तोमर राष्ट्रीय सम्मान दिया जाएगा। ग्वालियर में विश्व संगीत तानसेन समारोह की महफिल सज चुकी है। हर कोई बस तानसेन की समधि पर आकर तानसेन के रंग में रंगने की कोशिश में लग गया है। हिंदू हो या मुस्लिम सभी उन्हें अपने-अपने तरीके से श्रद्धांजलि देने की कोशिश में लगे हैं। सबसे पहले ढ़ोली बुआ महाराज के शिष्यों ने तानसेन की समधि पर श्रद्धाजंलि दी, तो वहीं मुस्लिम समाज की ओर से उनके लिए मिलाद शरीफ का आयोजन किया गया। ऐसे में रासिकों के पहुंचने का भी सिलसिला शुरू हो गया है। तानसेन समारोह को लेकर दूर-दराज से लोगों के पहुंचने का सिलसिला भी जारी है। कुछ रसिक प्रेमी तो ऐसे भी जो अपनी पैदाईश के बाद से ही तानसेन समारोह को देखने और सुनने आ रहे हैं। लेकिन इस बार देश के कलाकारों के साथ कुछ तानसेन प्रेमी भी समारोह अपनी प्रस्तुति देंगे। जिसको लेकर रासिक उत्साहित हैं। उनके मुताबिक तानसेन समारोह में गंगा-जमुनी तहजीब दिखाई देती है। भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में आयोजित होने वाले तानसेन समारोह का इस साल 98वाँ आयोजन हो रहा है। इस समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म सद्भाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परंपराएं हैं। महान संगीतज्ञ तानसेन उर्फ तन्ना मिश्र और उनके गुरु मोहम्मद गौस की समाधि के सामने आज से होने वाली शास्त्रीय संगीत की यह अनूठी महफ़िल है, जिसमें शिरकत करने का मौका मिलना ही कलाकार अपना अहोभाग्य समझते हैं। भारतीय संस्कृति में रची बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं। मुस्लिम समुदाय से देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण व राम तथा नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं तो साम्प्रदायिक सद्भाव की सरिता बह उठती है।   सिंधिया रियासत काल में शुरू हुआ यह गंगा जमुनी संस्कृति वाला आयोजन रियासतकाल में फरवरी 1924 में ग्वालियर में उर्स तानसेन के रूप में शुरू हुए इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था। तब ग्वालियर रियासत पर सिंधिया राज परिवार का राज था। उन्होंने इसे सालाना जलसे का रूप दिया।  तब से अब तक बिला नागा उसी परंपरा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आ रहा  है। इतनी सुदीर्घ परंपरा के उदाहरण न केवल देश बल्कि शास्त्रीय संगीत की दुनियां में भी  बिरले ही होंगे। तानसेन समारोह में नए आयाम तो जुड़े पर पुरानी परंपराएं अक्षुण्ण रही हैं। अब यह समारोह विश्व संगीत समागम का रूप ले चुका है। साथ ही समारोह की पूर्व संध्या पर उपशास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम “गमक” का आयोजन भी होता है। इस साल भी 97 साल से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन करते हुए 98वें तानसेन समारोह का आयोजन 19 से 23 दिसम्बर तक हो रहा है।  शहनाई, हरिकथा और मीलाद से होती है शुरुआत तानसेन समारोह का प्रारंभ सदैव ही शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढ़ोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है। प्रसिद्ध संत मठ से जुड़े ढ़ोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि धर्म का मार्ग कोई भी हो सभी ईश्वर तक ही पहुंचते हैं। उपनिषद् का भी मंत्र है "एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति''।  हर मूर्धन्य कला साधक ने लगाई है तानसेन समारोह में हाजिरी हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति दी है। शास्त्रीय गायक असगरी बेगम, पं. भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, सरोद वादक अमजद अली खाँ, संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं। वर्ष 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आये भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था '"यहां एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है'"। एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन के उर्स के मौके पर श्रद्धांजलि देने आये, लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण समारोह में भाग नहीं ले सके। उन्होंने तानसेन की मजार पर ही बैठ कर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया कि संगीत रसिक मुख्य समारोह से उठकर उनके समक्ष जा कर बैठ गये। '"राष्ट्रीय तानसेन समारोह'" की यह भी खूबी रही है कि पहले राज्याश्रय एवं स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिये। यह समारोह तो सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्ष्य बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरू शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है। भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के सजीव दर्शन होते हैं। संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते है तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं।   बेहट गांव में पांच शताब्दी पहले उगा था संगीत का यह सूर्य लगभग 505 वर्ष पूर्व ग्वालियर जिले के बेहट गाँव की माटी में मकरंद पाण्डे के घर जन्मा '"तन्ना मिसर'" अपने गुरू स्वामी हरिदास के ममतामयी अनुशासन में एक हीरे सा परिस्कार पाकर धन्य हो गया। तानसेन  की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिये निवेदन करते थे। तानसेन की प्रतिभा से बादशाह अकबर भी स्तम्भित हुए बिना न रह सके। बादशाह की जिज्ञासा यह भी थी कि यदि तानसेन इतने श्रेष्ठ हैं तो उनके गुरू स्वामी हरिदास कैसे होंगे। यही जिज्ञासा बादशाह अकबर को वेश बदलकर वृन्दावन की कुंज-गलियों में खींच लाई थी। वैज्ञानिक शोधों में संगीत के प्रभाव से पशु, पक्षी, वनस्पति, फसलों आदि पर भी असर प्रमाणित हुआ है।  कला रसिक राजा मानसिंह के काल में हुए तानसेन आरंभ में तानसेन जब संगीत का ककहरा सीख रहे थे तब ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। स्वयं राजा संगीत मर्मज्ञ थे । उन्होंने ही विश्वप्रसिद्ध राग ध्रुपद की रचना की।

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न्यूज डेस्क, अमर उजाला, ग्वालियर Published by: अंकिता विश्वकर्मा Updated Mon, 19 Dec 2022 02: 05 PM IST

सुरों के सरताज कहे जाने वाले तानसेन की याद में ग्वालियर में 19 दिसंबर से तानसेन समारोह का आगाज हो गया है। परम्परागत तरीके से शुरू हुए इस समारोह में सबसे पहले समधि स्थल पर हरिकथा और मिलाद का आयोजन किया गया। इसके बाद शाम को मशहूर बांसुरी वादक पं. नित्यानंद हल्दीकर को “तानसेन अलंकरण” और मुंबई की सामवेद सोसाइटी को “राजा मानसिंह तोमर राष्ट्रीय सम्मान दिया जाएगा।

ग्वालियर में विश्व संगीत तानसेन समारोह की महफिल सज चुकी है। हर कोई बस तानसेन की समधि पर आकर तानसेन के रंग में रंगने की कोशिश में लग गया है। हिंदू हो या मुस्लिम सभी उन्हें अपने-अपने तरीके से श्रद्धांजलि देने की कोशिश में लगे हैं। सबसे पहले ढ़ोली बुआ महाराज के शिष्यों ने तानसेन की समधि पर श्रद्धाजंलि दी, तो वहीं मुस्लिम समाज की ओर से उनके लिए मिलाद शरीफ का आयोजन किया गया। ऐसे में रासिकों के पहुंचने का भी सिलसिला शुरू हो गया है। तानसेन समारोह को लेकर दूर-दराज से लोगों के पहुंचने का सिलसिला भी जारी है। कुछ रसिक प्रेमी तो ऐसे भी जो अपनी पैदाईश के बाद से ही तानसेन समारोह को देखने और सुनने आ रहे हैं। लेकिन इस बार देश के कलाकारों के साथ कुछ तानसेन प्रेमी भी समारोह अपनी प्रस्तुति देंगे। जिसको लेकर रासिक उत्साहित हैं। उनके मुताबिक तानसेन समारोह में गंगा-जमुनी तहजीब दिखाई देती है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत की अनादि परंपरा के श्रेष्ठ कला मनीषी तानसेन की स्मृति में ग्वालियर में आयोजित होने वाले तानसेन समारोह का इस साल 98वाँ आयोजन हो रहा है। इस समारोह की सबसे बड़ी खूबी सर्वधर्म सद्भाव और इससे जुड़ी अक्षुण्ण परंपराएं हैं। महान संगीतज्ञ तानसेन उर्फ तन्ना मिश्र और उनके गुरु मोहम्मद गौस की समाधि के सामने आज से होने वाली शास्त्रीय संगीत की यह अनूठी महफ़िल है, जिसमें शिरकत करने का मौका मिलना ही कलाकार अपना अहोभाग्य समझते हैं। भारतीय संस्कृति में रची बसी गंगा-जमुनी तहजीब के सजीव दर्शन तानसेन समारोह में होते हैं। मुस्लिम समुदाय से देश के ख्यातिनाम संगीत साधक जब इस समारोह में भगवान कृष्ण व राम तथा नृत्य के देवता भगवान शिव की वंदना राग-रागनियों में सजाकर प्रस्तुत करते हैं तो साम्प्रदायिक सद्भाव की सरिता बह उठती है।
 

सिंधिया रियासत काल में शुरू हुआ यह गंगा जमुनी संस्कृति वाला आयोजन
रियासतकाल में फरवरी 1924 में ग्वालियर में उर्स तानसेन के रूप में शुरू हुए इस समारोह का आगाज हरिकथा व मौलूद (मीलाद शरीफ) के साथ ही हुआ था। तब ग्वालियर रियासत पर सिंधिया राज परिवार का राज था। उन्होंने इसे सालाना जलसे का रूप दिया।  तब से अब तक बिला नागा उसी परंपरा के साथ तानसेन समारोह का आगाज होता आ रहा  है। इतनी सुदीर्घ परंपरा के उदाहरण न केवल देश बल्कि शास्त्रीय संगीत की दुनियां में भी  बिरले ही होंगे। तानसेन समारोह में नए आयाम तो जुड़े पर पुरानी परंपराएं अक्षुण्ण रही हैं। अब यह समारोह विश्व संगीत समागम का रूप ले चुका है। साथ ही समारोह की पूर्व संध्या पर उपशास्त्रीय संगीत का कार्यक्रम “गमक” का आयोजन भी होता है। इस साल भी 97 साल से चली आ रही परंपराओं का निर्वहन करते हुए 98वें तानसेन समारोह का आयोजन 19 से 23 दिसम्बर तक हो रहा है। 

शहनाई, हरिकथा और मीलाद से होती है शुरुआत
तानसेन समारोह का प्रारंभ सदैव ही शहनाई वादन से होता है। इसके बाद ढ़ोली बुआ महाराज की हरिकथा और फिर मीलाद शरीफ का गायन। सुर सम्राट तानसेन और प्रसिद्ध सूफी संत मोहम्मद गौस की मजार पर चादर पोशी भी होती है। प्रसिद्ध संत मठ से जुड़े ढ़ोली बुआ महाराज अपनी संगीतमयी हरिकथा के माध्यम से कहते हैं कि धर्म का मार्ग कोई भी हो सभी ईश्वर तक ही पहुंचते हैं। उपनिषद् का भी मंत्र है “एकं सद् विप्र: बहुधा वदन्ति”। 

हर मूर्धन्य कला साधक ने लगाई है तानसेन समारोह में हाजिरी
हर जाति, धर्म व सम्प्रदाय से ताल्लुक रखने वाले श्रेष्ठ व मूर्धन्य संगीत कला साधकों ने कभी न कभी इस आयोजन में अपनी प्रस्तुति दी है। शास्त्रीय गायक असगरी बेगम, पं. भीमसेन जोशी व डागर बंधुओं से लेकर मशहूर शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ, सरोद वादक अमजद अली खाँ, संतूर वादक पं. शिवकुमार शर्मा, मोहनवीणा वादक पं. विश्वमोहन भट्ट जैसे मूर्धन्य संगीत कलाकार इस समारोह में गान महर्षि तानसेन को स्वरांजलि देने आ चुके हैं। वर्ष 1989 में तानसेन समारोह में शिरकत करने आये भारत रत्न पंडित रविशंकर ने कहा था ‘”यहां एक जादू सा होता है, जिसमें प्रस्तुति देते समय एक सुखद रोमांच की अनुभूति होती है'”। एक बार मशहूर पखावज वादक पागलदास भी तानसेन के उर्स के मौके पर श्रद्धांजलि देने आये, लेकिन रेडियो के ग्रेडेड आर्टिस्ट नहीं होने के कारण समारोह में भाग नहीं ले सके। उन्होंने तानसेन की मजार पर ही बैठ कर पखावज का ऐसा अद्भुत वादन किया कि संगीत रसिक मुख्य समारोह से उठकर उनके समक्ष जा कर बैठ गये। ‘”राष्ट्रीय तानसेन समारोह'” की यह भी खूबी रही है कि पहले राज्याश्रय एवं स्वाधीनता के बाद लोकतांत्रिक सरकार के प्रश्रय में आयोजित होने के बावजूद इस समारोह में सियासत के रंग कभी दिखाई नहीं दिये। यह समारोह तो सदैव भारतीय संगीत के विविध रंगों का साक्ष्य बना है। आधुनिक युग में शैक्षिक परिदृश्य से जहां गुरू शिष्य परंपरा लगभग ओझल हो गई है। भारतीय लोकाचार में समाहित इस महान परंपरा को संगीत कला के क्षेत्र में आज भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। तानसेन समारोह में भी भारत की इस विशिष्ट परंपरा के सजीव दर्शन होते हैं। संगीत सम्राट तानसेन की नगरी ग्वालियर के लिए कहावत प्रसिद्ध है कि यहां बच्चे रोते हैं, तो सुर में और पत्थर लुढ़कते है तो ताल में। इस नगरी ने पुरातन काल से आज तक एक से बढ़कर एक संगीत प्रतिभायें संगीत संसार को दी हैं और संगीत सूर्य तानसेन इनमें सर्वोपरि हैं।
 

बेहट गांव में पांच शताब्दी पहले उगा था संगीत का यह सूर्य
लगभग 505 वर्ष पूर्व ग्वालियर जिले के बेहट गाँव की माटी में मकरंद पाण्डे के घर जन्मा ‘”तन्ना मिसर'” अपने गुरू स्वामी हरिदास के ममतामयी अनुशासन में एक हीरे सा परिस्कार पाकर धन्य हो गया। तानसेन  की आभा से तत्कालीन नरेश व सम्राट भी विस्मित थे और उनसे अपने दरबार की शोभा बढ़ाने के लिये निवेदन करते थे। तानसेन की प्रतिभा से बादशाह अकबर भी स्तम्भित हुए बिना न रह सके। बादशाह की जिज्ञासा यह भी थी कि यदि तानसेन इतने श्रेष्ठ हैं तो उनके गुरू स्वामी हरिदास कैसे होंगे। यही जिज्ञासा बादशाह अकबर को वेश बदलकर वृन्दावन की कुंज-गलियों में खींच लाई थी। वैज्ञानिक शोधों में संगीत के प्रभाव से पशु, पक्षी, वनस्पति, फसलों आदि पर भी असर प्रमाणित हुआ है। 

कला रसिक राजा मानसिंह के काल में हुए तानसेन
आरंभ में तानसेन जब संगीत का ककहरा सीख रहे थे तब ग्वालियर पर कलाप्रिय राजा मानसिंह तोमर का शासन था। तानसेन की संगीत शिक्षा भी इसी वातावरण में हुई। स्वयं राजा संगीत मर्मज्ञ थे । उन्होंने ही विश्वप्रसिद्ध राग ध्रुपद की रचना की।

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