sant-ravidas:-साधु-संत-किसी-जाति-समुदाय-के-नहीं-होते,-रविदास-महाराज-ने-दुनिया-को-दी-यही-शिक्षा
न्यूज़ डेस्क, अमर उजाला, इंदौर Published by: अर्जुन रिछारिया Updated Thu, 03 Aug 2023 06: 24 PM IST आज जहां समाज विभिन्न जातियों में बंटा है वहीं लोगों ने अपनी जातियों के साथ ही अपने आराध्य देवों और महापुरुषों को भी बांट लिया है। जबकि महापुरुष सभी के हैं। उन्होंने देश व समस्त समाज एवं संसार के कल्याण हेतु अपना जीवन दिया। महापुरुषों का भी भगवान जैसा स्थान है। आज समाज में यही संदेश देना है कि संत शिरोमणि रविदास एवं उनके जैसे अन्य महापुरुष व संत केवल किसी जाति समुदाय विशेष के नहीं समस्त समाज के आराध्य हैं। अगर उन्हें कोई केवल किसी जाति समुदाय तक सीमित रखता है तो यह उन महापुरुषों के अपमान करने जैसा प्रतीत होता है। यदि हम संत शिरोमणि रविदास महाराज के जीवन पर प्रकाश डालें कि क्या वे केवल एक जाति या समाज के संत थे या उन्होंने इस तरह का कोई भी विचार प्रस्तुत किया तो उसका उत्तर होगा नहीं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो स्वामी रामानंदाचार्य जो वैष्णव भक्तिधारा के महान संत थे उन्हें वे अपना गुरु नहीं स्वीकारते। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुररुभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने 'संतन में रविदास' कहकर इन्हें मान्यता दी है। गुरुवाणी में भी संत रविदास की वाणी को स्थान दिया गया है। राजस्थान की कृष्णभक्त कवयित्री क्षत्रिय वर्ण से आने वाली मीराबाई उनकी शिष्या थीं। यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं थीं। वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। वर्ण, जाति और क्षेत्र की सीमा को तोड़ती ऐसी गुरु-शिष्य परंपरा मानवता की एक मिसाल है।  संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम कालूराम, दादी का नाम लखपती, पत्नी का नाम लोनाजी और पुत्र का नाम श्रीविजय दास है। रविदास जी चर्मकार कुल से होने के कारण जूते बनाते थे अपने कार्य के साथ ही भक्ति में भी लीन रहते थे। ऐसा करने में उन्हें बहुत खुशी मिलती थी और वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे। रविदाजी को पंजाब में रविदास कहा। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग 'रोहिदास' और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है। संत रविदास ने जो विचार अपने दोहों एवं उपदेशों के माध्यम से मानव जाति के कल्याण के लिए प्रस्तुत किए उन्हें हम सभी को आत्मसात करते हुए जाति, वर्ण और क्षेत्रवाद, भाषावाद से ऊपर उठकर एक समरस समाज की स्थापना करने का प्रयास करते हुए उनके स्वप्न को साकार करने का प्रयत्न करना चाहिए। आज प्रदेश में इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए जन-जन तक संत शिरोमणि रविदास की शिक्षाओं को पहुंचाने एवं समरसता भरे समाज की स्थापना के उद्देश्य से पूरे प्रदेश में पांच समरसता यात्राएं आयोजित की जा रही हैं। यह यात्राएं प्रदेश के प्रत्येक गांव से एक मुट्ठी मिट्टी और पवित्र नदियों का जल एकत्र कर सागर पहुंचेंगी जहां 12 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 35 एकड़ में 102 करोड़ रुपए की लागत से निर्मित होने वाले संत रविदास मंदिर का शिलान्यास करेंगे। समरसता यात्रा 4 अगस्त शुक्रवार को इंदौर में प्रवेश करेगी। मेरा मानना है कि इन यात्राओं में हर नागरिक को शामिल होना चाहिए।  - नितिन द्विवेदी 

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न्यूज़ डेस्क, अमर उजाला, इंदौर Published by: अर्जुन रिछारिया Updated Thu, 03 Aug 2023 06: 24 PM IST

आज जहां समाज विभिन्न जातियों में बंटा है वहीं लोगों ने अपनी जातियों के साथ ही अपने आराध्य देवों और महापुरुषों को भी बांट लिया है। जबकि महापुरुष सभी के हैं। उन्होंने देश व समस्त समाज एवं संसार के कल्याण हेतु अपना जीवन दिया। महापुरुषों का भी भगवान जैसा स्थान है। आज समाज में यही संदेश देना है कि संत शिरोमणि रविदास एवं उनके जैसे अन्य महापुरुष व संत केवल किसी जाति समुदाय विशेष के नहीं समस्त समाज के आराध्य हैं। अगर उन्हें कोई केवल किसी जाति समुदाय तक सीमित रखता है तो यह उन महापुरुषों के अपमान करने जैसा प्रतीत होता है। यदि हम संत शिरोमणि रविदास महाराज के जीवन पर प्रकाश डालें कि क्या वे केवल एक जाति या समाज के संत थे या उन्होंने इस तरह का कोई भी विचार प्रस्तुत किया तो उसका उत्तर होगा नहीं, क्योंकि अगर ऐसा होता तो स्वामी रामानंदाचार्य जो वैष्णव भक्तिधारा के महान संत थे उन्हें वे अपना गुरु नहीं स्वीकारते। संत रविदास तो संत कबीर के समकालीन व गुररुभाई माने जाते हैं। स्वयं कबीरदास जी ने ‘संतन में रविदास’ कहकर इन्हें मान्यता दी है। गुरुवाणी में भी संत रविदास की वाणी को स्थान दिया गया है। राजस्थान की कृष्णभक्त कवयित्री क्षत्रिय वर्ण से आने वाली मीराबाई उनकी शिष्या थीं। यह भी कहा जाता है कि चित्तौड़ के राणा सांगा की पत्नी झाली रानी उनकी शिष्या बनीं थीं। वहीं चित्तौड़ में संत रविदास की छतरी बनी हुई है। वर्ण, जाति और क्षेत्र की सीमा को तोड़ती ऐसी गुरु-शिष्य परंपरा मानवता की एक मिसाल है। 

संत शिरोमणि कवि रविदास का जन्म माघ पूर्णिमा को 1376 ईस्वी को उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के गोबर्धनपुर गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम कर्मा देवी (कलसा) तथा पिता का नाम संतोख दास (रग्घु) था। उनके दादा का नाम कालूराम, दादी का नाम लखपती, पत्नी का नाम लोनाजी और पुत्र का नाम श्रीविजय दास है। रविदास जी चर्मकार कुल से होने के कारण जूते बनाते थे अपने कार्य के साथ ही भक्ति में भी लीन रहते थे। ऐसा करने में उन्हें बहुत खुशी मिलती थी और वे पूरी लगन तथा परिश्रम से अपना कार्य करते थे। रविदाजी को पंजाब में रविदास कहा। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान में उन्हें रैदास के नाम से ही जाना जाता है। गुजरात और महाराष्ट्र के लोग ‘रोहिदास’ और बंगाल के लोग उन्हें ‘रुइदास’ कहते हैं। कई पुरानी पांडुलिपियों में उन्हें रायादास, रेदास, रेमदास और रौदास के नाम से भी जाना गया है। संत रविदास ने जो विचार अपने दोहों एवं उपदेशों के माध्यम से मानव जाति के कल्याण के लिए प्रस्तुत किए उन्हें हम सभी को आत्मसात करते हुए जाति, वर्ण और क्षेत्रवाद, भाषावाद से ऊपर उठकर एक समरस समाज की स्थापना करने का प्रयास करते हुए उनके स्वप्न को साकार करने का प्रयत्न करना चाहिए।

आज प्रदेश में इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए जन-जन तक संत शिरोमणि रविदास की शिक्षाओं को पहुंचाने एवं समरसता भरे समाज की स्थापना के उद्देश्य से पूरे प्रदेश में पांच समरसता यात्राएं आयोजित की जा रही हैं। यह यात्राएं प्रदेश के प्रत्येक गांव से एक मुट्ठी मिट्टी और पवित्र नदियों का जल एकत्र कर सागर पहुंचेंगी जहां 12 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 35 एकड़ में 102 करोड़ रुपए की लागत से निर्मित होने वाले संत रविदास मंदिर का शिलान्यास करेंगे। समरसता यात्रा 4 अगस्त शुक्रवार को इंदौर में प्रवेश करेगी। मेरा मानना है कि इन यात्राओं में हर नागरिक को शामिल होना चाहिए। 

– नितिन द्विवेदी 

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