न्यूज डेस्क, अमर उजाला, भोपाल Published by: शबाहत हुसैन Updated Sat, 06 Apr 2024 10: 50 AM IST
Ramadhan: इस्लामी किताबों में कहा गया है, जब तुम्हारे ऊपर कोई मुश्किल आए तो सदका देकर इसका सौदा कर लिया करो। यानी इसके जरिए मुश्किलों से निजात के रास्ते खुल जाते हैं। इस्लाम में सोशल मैनेजमेंट की अवधारणा के साथ हर सक्षम व्यक्ति पर जकात अदा करना फर्ज किया गया है। एक वित्तीय वर्ष में इसका कैलकुलेशन करके यह कभी भी अदा की जा सकती है, लेकिन माह-ए-रमजान में इसकी अदायगी की वजह यह बताई जाती है कि इस माह हर नेकी का बदला 70 गुना तक बढ़ा हुआ मिलने की मान्यता है। सदका फित्र का – फोटो : अमर उजाला
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इस्लाम के 5 अहम स्तंभ माने जाने वाली बातों में एक जकात भी शामिल है। इसके लिए हुक्म है सालभर में एक बार व्यक्ति अपने माल ओ जर, संपत्ति, कारोबार, नेट बचत से एक निश्चित राशि निकाले और इसके लिए मुस्तहिक (योग्य) व्यक्ति तक पहुंचाए। सरकारों द्वारा वसूल किया जाने वाला टैक्स की ही एक शक्ल जकात है, जिसकी अदायगी बिना किसी नोटिस, रिमाइंडर, तगादे के करना होती है। बड़ी बात यह भी है कि अदा की जाने वाली इस राशि का असेसमेंट भी खुद लोगों को ही करना होती है। भली बात यह भी है कि कोई भी जकात अदाकर्ता इस कैलकुलेशन में न तो कोई हेर फेर करता है और न ही इससे बचने की गलियां खोजता है।
कौन दे जकात, किसको दे
एक ऐसा संपन्न व्यक्ति, जो मानसिक रूप से स्वस्थ्य है और जिस पर कोई कर्ज नहीं है, वह जकात दे सकता है। उसे अपनी संपत्ति का कुल ढाई प्रतिशत सालाना जकात के रूप में अदा किए जाने का हुक्म है। गरीब, जरूरतमंद, आर्थिक रूप से कमजोर, विधवा या बे सहारा व्यक्ति को ये राशि अदा की जा सकती है। दी जाने वाली राशि अधिक हो तो यह एक से अधिक लोगों में भी बांटी जा सकती है। जकात अदा करने के लिए ये भी कहा गया है कि इसके लिए बेहतर जरूरतमंद और जकात लेने के हकदार व्यक्ति की अच्छे से खोज करके अदा की जाए, ताकि इसको अदा करने का मकसद पूरा हो सके। हुक्म यह भी है कि जकात देते समय पहली नजर अपने करीबी रिश्तेदारों, मुहल्लेदार और आसपास के कमजोर लोगों को देखा जाए, ताकि उनकी आसान मदद की जा सके।
सोशल मैनेजमेंट
जकात की अनिवार्यता के पीछे लॉजिक यह बताया जाता है कि साल में एक बार संपन्न लोगों से निकली हुई राशि कौम के उन लोगों तक पहुंच सके, जो आर्थिक रूप से अक्षम और कमजोर हैं। रमजान माह में जकात देने से एक फायदा यह भी नजर आता है कि खुशियों त्योहार ईद को मनाने में गरीब और कमजोर लोगों को आर्थिक अक्षमता का सामना न करना पड़े।
जान का सदका फितरा
जिस तरह माल का सदका जकात के रूप में निकालने की मान्यता है, उसी प्रकार जान के सदके के रूप में फितरा देने की व्यवस्था इस्लाम में की गई है। साल में एक बार इसकी अदायगी की पाबंदी भी है। नमाज ए ईद से पहले इसको अदा करने के लिए कहा गया है। उलेमाओं द्वारा बताए गए तरीके के हिसाब से हर व्यक्ति को फितरे के रूप में एक किलो 633 ग्राम गेंहू या इसके बाजार भाव के लिहाज से राशि देना होगी है। अलग अलग जगहों के प्रचलन के मुताबिक गेहूं के अलावा खजूर या किशमिश अथवा उसके एवज में नगद राशि का फितरा अदा करने के लिए कहा गया है।
भोपाल से खान आशु की रिपोर्ट
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