गोरखा समुदाय के मेजर दुर्गा मल्ल की कहानी अद्भुत है. एक जुलाई, 1913 को देहरादून के डोईवाला गांव में उनका जन्म हुआ था. जब गांधीजी ने 1930 में दांडी मार्च का आरंभ किया, तब मल्ल ने भी स्थानीय अंग्रेज विरोधी गतिविधियों में भाग लिया. वे अक्सर रात में अपने दोस्तों के साथ स्वतंत्रता संग्राम के पोस्टर चिपकाने के लिए गोरखा बटालियन क्षेत्र में प्रवेश करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के जुलूसों में शामिल हुआ करते थे. वर्ष 1931 में केवल 18 वर्ष की उम्र में वे गोरखा राइफल्स के 2/1 बटालियन में भर्ती हो गये. पर 1942 में गोरखा राइफल्स छोड़ नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय सेना (आइएनए) का गठन किया. यहां उन्हें अक्सर बर्मा की सीमा के पहाड़ी इलाकों में रणनीतिक महत्व के क्षेत्रों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए गुप्त अभियान पर जाना पड़ता था. वर्ष 1944 के 27 मार्च को जब वे दुश्मन के शिविर के बारे में जानकारी एकत्र कर रहे थे, तब पकड़े गये. वर्ष 1944 के 25 अगस्त को उन्हें फांसी दे दी गयी. फांसी पर चढ़ने से पहले उनके अंतिम कुछ शब्द थे, ‘मेरा बलिदान व्यर्थ नहीं जायेगा/भारत आजाद होगा…’इन सब के अतिरिक्त, महाबिरी देवी, करतार सिंह सराभा, चित्तू पांडेय, हैपोउ जादोनांग, अबादी बेगम, तीलू रौतेली, अल्लूरी सीताराम राजू, तिरुपर कुमारन, अक्कम्मा चेरियन, अनंत लक्ष्मण कन्हेरे, का फान नोंगलाइट, यू तिरोम सिंग सियम समेत तमाम ऐसे नाम हैं, जिनके बलिदानों ने देश को स्वतंत्र कराया.
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