डॉ-पूर्णिमा-देवी-बर्मन-की-कहानी:-पक्षियों-के-प्रति-प्रेम-ने-दिलाया-यूएन-का-'चैंपियंस-ऑफ-द-अर्थ'-सम्मान
महज पांच साल की उम्र में एक बच्ची को उसके माता-पिता ने ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर उसकी दादी के साथ रहने के लिए भेज दिया. मां-बाप से दूर बच्ची गुमसुम-सी रहने लगी. बच्ची का ध्यान बांटने के लिए उसकी दादी धान के खेतों में ले जाती. धान के खेतों में सारस व अन्य पक्षियों के झुंड ने उसे काफी आकर्षित किया. फिर पक्षियों के प्रति उसका लगाव इस कदर बढ़ा कि उसने सारस यानी हरगीला को बचाने के लिए पूरे असम में एक मुहिम छेड़ दी. आज इसी का नतीजा है कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने उन्हें पर्यावरण के सर्वोच्च पुरस्कार 'चैंपियंस ऑफ द अर्थ' से नवाजा है. यह कहानी है असम की जीव विज्ञानी डॉ पूर्णिमा देवी बर्मन की. यूएन का सर्वोच्च सम्मान पाकर वास्तव में पूर्णिमा ने पूरे विश्व में देश का मान बढ़ाया है हाल में ही असम कामरूप जिले की रहने वाली भारतीय वन्य जीव वैज्ञानिक डॉ पूर्णिमा देवी बर्मन को संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार 'चैंपियंस ऑफ द अर्थ' से नवाजा गया है. यह संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च पर्यावरणीय सम्मान है. पूर्णिमा को पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण को रोकने और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उल्लेखनीय कार्यों के लिए 'चैंपियंस ऑफ द अर्थ' पुरस्कार की एंटरप्रेन्योरल विजन कैटेगरी में यह सम्मान मिला है. इस साल इस अवॉर्ड के लिए दुनिया भर से रिकॉर्ड 2,200 नामांकन प्राप्त हुए थे, जिसमें से 26 विश्व नेता, 69 व्यक्तियों और 16 संगठनों को पुरस्कार के लिए चुना गया. कुल मिलाकर इस बार 111 विजेताओं को यह अवार्ड मिला है. अवार्ड जीतने वाले अन्य लोगों में आर्सेनसील (लेबनान), कॉन्स्टेंटिनो (टीनो) औक्का चुटस (पेरू), यूनाइटेड किंगडम के सर पार्थ दासगुप्ता और सेसिल बिबियाने नदजेबेट (कैमरून) के नाम शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) का सर्वोच्च सम्मान दिलाकर डॉ पूर्णिमा ने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान बढ़ाया है, बल्कि वह उन लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गयी हैं, जो पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम करना चाहते हैं. बचपन में ऐसे जगी हरगीला व अन्य पक्षियों के प्रति संवेदना भले ही पूर्णिमा को बचपन में अपने मां-बाप का दुलार-प्यार नहीं मिला, लेकिन करुणा और संवेदना इनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा है. ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे दादी के साथ रहते-रहते पक्षियों से प्रेम होने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया. इसी का नतीजा है कि उन्हें आज सबसे बड़ा पर्यावरण सम्मान मिला है. अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए पूर्णिमा कहती हैं- “मेरे पिता सेना में सिपाही थे. मेरे भाई-बहन की उम्र भी कमोबेश मेरी जैसी ही थी. पिता जी की ट्रांसफर वाली नौकरी के चलते मां को मेरी देखभाल में काफी परेशानी होती थी. लिहाजा, मैं लगभग छह साल के लिए अपनी दादी के पास रहने आ गयी. शुरुआत में माता-पिता से दूर होने के कारण मुझे अकेलापन काफी सताता था. मैंने खाना-पीना सब कुछ छोड़ दिया था. मेरी दादी मां मुझे डॉक्टर के पास ले गयीं. फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ. इसके बाद मेरी दादी मां मुझे धान के खेतों में घुमाने के लिए जाने लगीं. धान के खेतों में ही मैंने पहली बार सारस यानी हरगीला देखा. उस दौरान मुझे व्यस्त रखने के लिए दादी उन पक्षियों की गिनती करने के लिए कहतीं. मैं उन पक्षियों की मधुर ध्वनि सुना करती. इस तरह प्रकृति से मेरा नाता जुड़ता चला गया. पक्षियों से लगाव इतना कि इन्हीं पर ही कर डाली पीएचडी गांव की मिट्टी से जुड़े रहने के बाद पूर्णिमा ने अपनी स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगहों से पूरी की. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया. उन्होंने गुवाहाटी विवि से इकोलॉजी एंड वाइल्ड लाइफ बायोलॉजी में मास्टर की डिग्री हासिल की. पढ़ाई के दौरान ही उनके दो शिक्षकों ने वन्य जीवों के संरक्षण में योगदान देने के लिए उन्हें काफी प्रेरित किया. इसके बाद वह पक्षियों के संरक्षण के लिए काम करने वाले लोगों के साथ जुड़ गयीं. एमएससी करने के बाद पूर्णिमा को पीएचडी करने की दिली ख्वाहिश थी. इस सिलसिले में एक दिन उनके प्रोफेसर ने मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में बुलाया. उनके प्रोफेसर ने खाने के लिए चिकेन ऑर्डर किया, लेकिन रेस्टोरेंट संचालक ने धोखे से चिकेन की जगह हरगीला का मांस दे दिया. इस घटना ने पूर्णिमा को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उस दिन से ही इन बेजुबान पक्षियों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. साथ ही उन्होंने इन पक्षियों पर पीएचडी करने का मन बना लिया. इस बीच वह अरण्यक नामक एनजीओ में बतौर वॉलेंटियर काम करने लगीं. हरगीला को बचाने के लिए रखीं 'हरगीला सेना' की नींव लुप्तप्राय हरगीला को बचाने के लिए पूर्णिमा में कुछ स्थानीय महिलाओं को एकजुट कर 'हरगीला सेना' की नींव रखी. पूर्णिमा के प्रयासों का नतीजा है कि आज 'हरगिला सेना' में 10,000 से अधिक महिलाएं शामिल हैं. हरगिला सेना सारस के घोंसला बनाने और शिकार करने वाली जगहों की रक्षा करती है. घायल सारसों का पुनर्वास किया जाता है. ऐसे पक्षी जो अपने घोंसलों से गिर जाते हैं, उनकी देखभाल की जाती है. नवजात चूजों के आगमन का जश्न मनाने के लिए 'गोद भराई' की रस्म भी अदा की जाती है. आज कामरूप जिले के दादरा, पचरिया और सिंगिमारी के गांवों में घोंसलों की संख्या 28 से बढ़कर 250 से अधिक हो गयी है. पूर्णिमा महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए भी कई काम कर रही हैं. पक्षियों के संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्याें के लिए पूर्णिमा को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिल चुके हैं. बढ़-चढ़ कर पक्षियों का संरक्षण कर रही पूर्णिमा के प्रयासों से हजारों महिलाएं सशक्त हुई हैं. कई उद्यमी तैयार हुए हैं और लोगों की आजीविका में भी सुधार हुआ है. पूर्णिमा के काम ने दिखाया है कि मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच संघर्ष को खत्म किया जा सकता है. सभी के हितों का ध्यान रखकर भी समस्या का समाधान किया जा सकता है. - इंगर एंडरसन, यूएनइपी के कार्यकारी निदेशक जानें चैंपियंस ऑफ द अर्थ अवार्ड के बारें में इस अवार्ड की स्थापना वर्ष 2005 में की गयी थी, जो संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान है. पर्यारण संरक्षण में सहयोग करने वाले लोगों को इस अवार्ड से सम्मानित किया जाता है. अब तक यह अवार्ड 111 बार दिया जा चुका है, जिनमें 26 वर्ल्ड लीडर, 69 व्यक्ति और 16 संगठन शामिल हैं. प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान वर्ष 2017 में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित वर्ष 2017 में ही यूनाइटेड किंगडम की प्रिंसेस रॉयल ऐनी ने उन्हें एक व्हिटली पुरस्कार से सम्मानित किया वर्ष 2016 में यूएनडीपी इंडिया बायो डायवर्सिटी अवार्ड से नवाजा गया वर्ष 2015 में कंजर्वेशन लीडरशिप प्रोग्राम के तहत लीडरशिप अवार्ड मिला वर्ष 2009 में द फ्यूचर कंजर्वेशनिस्ट अवार्ड Champions of the Earth Awardassam newsPublished Date Mon, Nov 28, 2022, 1: 53 PM IST

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महज पांच साल की उम्र में एक बच्ची को उसके माता-पिता ने ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर उसकी दादी के साथ रहने के लिए भेज दिया. मां-बाप से दूर बच्ची गुमसुम-सी रहने लगी. बच्ची का ध्यान बांटने के लिए उसकी दादी धान के खेतों में ले जाती. धान के खेतों में सारस व अन्य पक्षियों के झुंड ने उसे काफी आकर्षित किया. फिर पक्षियों के प्रति उसका लगाव इस कदर बढ़ा कि उसने सारस यानी हरगीला को बचाने के लिए पूरे असम में एक मुहिम छेड़ दी.

आज इसी का नतीजा है कि संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम ने उन्हें पर्यावरण के सर्वोच्च पुरस्कार ‘चैंपियंस ऑफ द अर्थ’ से नवाजा है. यह कहानी है असम की जीव विज्ञानी डॉ पूर्णिमा देवी बर्मन की. यूएन का सर्वोच्च सम्मान पाकर वास्तव में पूर्णिमा ने पूरे विश्व में देश का मान बढ़ाया है

हाल में ही असम कामरूप जिले की रहने वाली भारतीय वन्य जीव वैज्ञानिक डॉ पूर्णिमा देवी बर्मन को संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार ‘चैंपियंस ऑफ द अर्थ’ से नवाजा गया है. यह संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च पर्यावरणीय सम्मान है. पूर्णिमा को पारिस्थितिकी तंत्र के क्षरण को रोकने और पर्यावरण संरक्षण की दिशा में उल्लेखनीय कार्यों के लिए ‘चैंपियंस ऑफ द अर्थ’ पुरस्कार की एंटरप्रेन्योरल विजन कैटेगरी में यह सम्मान मिला है. इस साल इस अवॉर्ड के लिए दुनिया भर से रिकॉर्ड 2,200 नामांकन प्राप्त हुए थे, जिसमें से 26 विश्व नेता, 69 व्यक्तियों और 16 संगठनों को पुरस्कार के लिए चुना गया.

कुल मिलाकर इस बार 111 विजेताओं को यह अवार्ड मिला है. अवार्ड जीतने वाले अन्य लोगों में आर्सेनसील (लेबनान), कॉन्स्टेंटिनो (टीनो) औक्का चुटस (पेरू), यूनाइटेड किंगडम के सर पार्थ दासगुप्ता और सेसिल बिबियाने नदजेबेट (कैमरून) के नाम शामिल हैं. संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनइपी) का सर्वोच्च सम्मान दिलाकर डॉ पूर्णिमा ने न सिर्फ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का मान बढ़ाया है, बल्कि वह उन लोगों के लिए प्रेरणास्त्रोत बन गयी हैं, जो पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में काम करना चाहते हैं.

बचपन में ऐसे जगी हरगीला व अन्य पक्षियों के प्रति संवेदना

भले ही पूर्णिमा को बचपन में अपने मां-बाप का दुलार-प्यार नहीं मिला, लेकिन करुणा और संवेदना इनके व्यक्तित्व का हिस्सा रहा है. ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे दादी के साथ रहते-रहते पक्षियों से प्रेम होने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन पक्षियों के लिए समर्पित कर दिया. इसी का नतीजा है कि उन्हें आज सबसे बड़ा पर्यावरण सम्मान मिला है. अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए पूर्णिमा कहती हैं- “मेरे पिता सेना में सिपाही थे. मेरे भाई-बहन की उम्र भी कमोबेश मेरी जैसी ही थी. पिता जी की ट्रांसफर वाली नौकरी के चलते मां को मेरी देखभाल में काफी परेशानी होती थी.

लिहाजा, मैं लगभग छह साल के लिए अपनी दादी के पास रहने आ गयी. शुरुआत में माता-पिता से दूर होने के कारण मुझे अकेलापन काफी सताता था. मैंने खाना-पीना सब कुछ छोड़ दिया था. मेरी दादी मां मुझे डॉक्टर के पास ले गयीं. फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ. इसके बाद मेरी दादी मां मुझे धान के खेतों में घुमाने के लिए जाने लगीं. धान के खेतों में ही मैंने पहली बार सारस यानी हरगीला देखा. उस दौरान मुझे व्यस्त रखने के लिए दादी उन पक्षियों की गिनती करने के लिए कहतीं. मैं उन पक्षियों की मधुर ध्वनि सुना करती. इस तरह प्रकृति से मेरा नाता जुड़ता चला गया.

पक्षियों से लगाव इतना कि इन्हीं पर ही कर डाली पीएचडी

गांव की मिट्टी से जुड़े रहने के बाद पूर्णिमा ने अपनी स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगहों से पूरी की. इसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया. उन्होंने गुवाहाटी विवि से इकोलॉजी एंड वाइल्ड लाइफ बायोलॉजी में मास्टर की डिग्री हासिल की. पढ़ाई के दौरान ही उनके दो शिक्षकों ने वन्य जीवों के संरक्षण में योगदान देने के लिए उन्हें काफी प्रेरित किया. इसके बाद वह पक्षियों के संरक्षण के लिए काम करने वाले लोगों के साथ जुड़ गयीं. एमएससी करने के बाद पूर्णिमा को पीएचडी करने की दिली ख्वाहिश थी.

इस सिलसिले में एक दिन उनके प्रोफेसर ने मिलने के लिए एक रेस्टोरेंट में बुलाया. उनके प्रोफेसर ने खाने के लिए चिकेन ऑर्डर किया, लेकिन रेस्टोरेंट संचालक ने धोखे से चिकेन की जगह हरगीला का मांस दे दिया. इस घटना ने पूर्णिमा को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने उस दिन से ही इन बेजुबान पक्षियों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया. साथ ही उन्होंने इन पक्षियों पर पीएचडी करने का मन बना लिया. इस बीच वह अरण्यक नामक एनजीओ में बतौर वॉलेंटियर काम करने लगीं.

हरगीला को बचाने के लिए रखीं ‘हरगीला सेना’ की नींव

लुप्तप्राय हरगीला को बचाने के लिए पूर्णिमा में कुछ स्थानीय महिलाओं को एकजुट कर ‘हरगीला सेना’ की नींव रखी. पूर्णिमा के प्रयासों का नतीजा है कि आज ‘हरगिला सेना’ में 10,000 से अधिक महिलाएं शामिल हैं. हरगिला सेना सारस के घोंसला बनाने और शिकार करने वाली जगहों की रक्षा करती है. घायल सारसों का पुनर्वास किया जाता है. ऐसे पक्षी जो अपने घोंसलों से गिर जाते हैं, उनकी देखभाल की जाती है. नवजात चूजों के आगमन का जश्न मनाने के लिए ‘गोद भराई’ की रस्म भी अदा की जाती है.

आज कामरूप जिले के दादरा, पचरिया और सिंगिमारी के गांवों में घोंसलों की संख्या 28 से बढ़कर 250 से अधिक हो गयी है. पूर्णिमा महिलाओं को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने के लिए भी कई काम कर रही हैं. पक्षियों के संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्याें के लिए पूर्णिमा को कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिल चुके हैं.

बढ़-चढ़ कर पक्षियों का संरक्षण कर रही पूर्णिमा के प्रयासों से हजारों महिलाएं सशक्त हुई हैं. कई उद्यमी तैयार हुए हैं और लोगों की आजीविका में भी सुधार हुआ है. पूर्णिमा के काम ने दिखाया है कि मनुष्यों और वन्यजीवों के बीच संघर्ष को खत्म किया जा सकता है. सभी के हितों का ध्यान रखकर भी समस्या का समाधान किया जा सकता है.

– इंगर एंडरसन, यूएनइपी के कार्यकारी निदेशक

जानें चैंपियंस ऑफ द अर्थ अवार्ड के बारें में

इस अवार्ड की स्थापना वर्ष 2005 में की गयी थी, जो संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च पर्यावरण सम्मान है. पर्यारण संरक्षण में सहयोग करने वाले लोगों को इस अवार्ड से सम्मानित किया जाता है. अब तक यह अवार्ड 111 बार दिया जा चुका है, जिनमें 26 वर्ल्ड लीडर, 69 व्यक्ति और 16 संगठन शामिल हैं.

प्रतिष्ठित पुरस्कार और सम्मान

वर्ष 2017 में तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित

वर्ष 2017 में ही यूनाइटेड किंगडम की प्रिंसेस रॉयल ऐनी ने उन्हें एक व्हिटली पुरस्कार से सम्मानित किया

वर्ष 2016 में यूएनडीपी इंडिया बायो डायवर्सिटी अवार्ड से नवाजा गया

वर्ष 2015 में कंजर्वेशन लीडरशिप प्रोग्राम

के तहत लीडरशिप अवार्ड मिला

वर्ष 2009 में द फ्यूचर कंजर्वेशनिस्ट अवार्ड

Champions of the Earth Awardassam newsPublished Date

Mon, Nov 28, 2022, 1: 53 PM IST